आज रात तीसरे पहर तेज हवाएं चली थीं। तपते मई-जून में मौसम का मिजाज बदलने से लोगों ने काफी राहत महसूस की। कामकाज समेट कर अखबार के दफ्तर से घर जा रहे चार दोस्त एक और वजह से खुश थे। बसंत, पुष्कर, डब्बू और पुत्तू लंबे-लंबे डग भरते बेल के पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां जमीन पर गिरे दो सुनहरे बेल देखकर सभी के चेहरे खिल गए। लुधियाना की इस भीषण गर्मी में शरबते बेल की ठंडाई का इंतजाम जो हो गया था।
दैनिक भास्कर कार्यालय और हमारे किराए के ठिकाने के रास्ते में पड़ने वाले इस बेल के पेड़ से हमारा एक अजीब सा नाता जुड़ गया था। रात्रि के करीब 1.30 बजे हम चारों निचुड़कर दफ्तर से निकलते, लेकिन बेल के पेड़ के पास पहुंचते ही ऊर्जावान हो उठते। इस पेड़ ने शायद ही हमें कभी निराश किया। जिस किसी दिन बेल नहीं मिलता, चारों मायूस होकर आगे बढ़ते। आज क्या हवा नहीं चली या फिर लाठी पीटने और सीटी बजाने वाले मोहल्ले के चौकीदार ने बाजी मार ली। खैर यह प्रकृति ही तो है जो अमीर-गरीब, छोटे-बड़े में भेदभाव नहीं करती। काश, इस समरसता को इंसानी जात भी अंगीकार कर पाती।
वक्त के उस दौर को गुजरे दो साल से ज्यादा हो गए हैं। शहर में ठेले पर बिक रहे पके बेलों पर सहसा नजर पड़ी तो मन पंछी उड़ चला। गर्मी में प्रायः रोज ही बेल का शरबत तैयार करने तथा हम सभी का एक साथ बैठ कर पीने की यादें कुलबुलाने लगीं। घंटे-डेढ़ घंटे के जमावड़े में हम देश-दुनिया की घटनाओं, राजनीति, कार्यालय निंदाकांड और जाने क्या-क्या निपटा देते थे। अलग सोच, भिन्न पृष्ठभूमि-मत तथा अलहदा कार्यशैली होने के बावजूद चारों मित्रों में गजब का तालमेल था।
कार्यालय में बसंत, डब्बू और पुत्तू जनरल डेस्क तथा पुष्कर शहर पर थे, जबकि आवासीय व्यवस्था में डब्बू, पुष्कर और पुत्तू एक साथ मैं, बसंत अलग रहता था। शादी-शुदा होने से मैं कई और खुशनुमा एहसास से वंचित रह जाता था। कभी-कभी मन फिर से कुंवारा होने के लिए मचल उठता था। जब कभी बीवी-बच्चे गांव चले जाते थे, तब मैं पूरी तरह समर्पित होकर तिकड़ी को चौकड़ी बना देता था।
डब्बू वामपंथी विचारधारा से प्रभावित नेक इंसान हैं। इतिहास के अच्छे जानकार और अपनी जानकारी पर अटल। अब क्षत्रिय हैं तो बात-व्यवहार में उसकी झलक मिलेगी ही। बाकी तीनों कहने को ब्राह्मण। पुत्तू शुक्ल तथा बसंत, पुष्कर मिश्र। पुष्कर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को समझने वाले बहुत ही सुलझे व्यक्ति हैं। ब्राह्मण होने पर उनको गर्व है और अपनी सभ्यता-संस्कृति, जो कुछ बची-खुची है पर नाज भी करते हैं। कहते हैं, पुष्कर चिकन बहुत ही उम्दा बनाते हैं। जाहिर है पैग तो अच्छा बनता ही होगा। पुत्तू कम उम्र में बड़ी जिम्मेदारी संभालने, छोटे कद व बड़े दिमाग वाले नौजवान हैं। आधुनिक जीवनशैली के चाहवान शुक्ल जी आजकल एक खास तैयारी में जुटे हैं, प्रभु उन्हें सफलता दें। मैं अपने बारे में खुद क्या लिखूं। बड़ा अफसोस होता था कि तीनों मुझे अतिरिक्त भाव देते हैं। वह शायद उम्र और पद में वरिष्ठ होने के नाते, लेकिन घाटा तो मेरा ही था। एक अदृश्य दीवार सी बन जाती थी। जो खुलापन, निश्चलता, सरलता, सहजता उन तीनों की आपस में रहती थी, मेरे समूह में शामिल होते ही माहौल में थोड़ी सतर्कता आ जाती थी।
मजमा कुंवारों के कमरे पर ही लगता था। वाद-विवाद में सा से शुरू होकर स्वर पा तक पहुंचते-पहुंचते तीखा हो जाता था। ज्यादातर बहसों के जनक पुष्कर व डब्बू ही होते थे। जाहिर है कि बकचोदी जैसे आसान काम में कौन हाथ बटाना नहीं चाहेगा। पुत्तू उन दिनों प्रशिक्षु वामपंथी थे, इसलिए झुकाव गुरु डब्बू की ओर ही होता था। वैसे गुरु-चेले में कम ही पटती थी। वजह गुरु का चेले को बच्चा समझना जबकि वह बड़ा हो चुका था। मैं निष्पक्ष रहने के प्रयास में जाने कब धुर दक्षिणपंथी पुष्कर की लाइन पकड़ लेता। व्यवहार में चारों निरपेक्ष, सच के संगी, साफ दिल के और इंसानी भावनाओं का महसूस करने वाले हैं। अतः बहस का पटाक्षेप होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता था। मुद्दे ही कुछ ऐसे होते थे जो हमें उलझा देते थे। मोदी-गुजरात, कांग्रेस-भाजपा, धर्म-शास्त्र व वेदों की बातें, सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, पूंजीवाद आदि आदि। तमाम कठिनाइयों, अभावों के बावजूद वह दौर बढ़िया बीता।
सबसे छोटा पुत्तू आजकल हिंदुस्तान बरेली में बड़ा मुलाजिम है। अक्तूबर, 2009 सबसे पहले उसी ने शहर छोड़ा। जून 2010 में डब्बू प्रभात खबर, मुजफ्फरपुर चले गए। फिर पुष्कर का जुलाई 2010 में भास्कर रांची में तबादला हो गया। अब रांची में डब्बू और पुष्कर पुनः साथ रहने का आनंद उठा रहे हैं। मुझे तो अभी पंजाब की उपजाऊ माटी छोड़ नहीं रही।
जब चारों बैठते तो हमारा व्यवहार निरा देहाती होता था। गांव-देहात की यादें, वहीं की बोली। रहन-सहन में सादगी। कोई दिखावा, कोई बनावट नहीं। हम सभी ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े, शुरुआती शिक्षा भी वहीं पाई। हां पुत्तू ऐसे माहौल में शायद कम रहा है। मुझे शहरी जीवन रास नहीं आता। मैं आज भी गांव के दिनों को याद करके रोमांचित हो उठता हूं। मन करता है कि वहीं भाग जाऊं। जेठ की भरी दुपहरी में बड़ों की डांट पड़ती था कि सो जाओ। बाहर मत जाना लू लग जाएगी। लेकिन किशोरों की टोली भला कब मानने वाली। घर वालों की आंख लगी नहीं कि लड़के नौ दो ग्यारह। सारी दुपहरिया यह टोली कभी इस बगिया तो कभी उस बगिया। आम, बेल, जामुन तोड़ते-खाते दोपहर कट जाता था। गर्मियों की छुट्टियों में हमारा बस यही काम था। उस जमाने में समर क्लासेज या हाबी क्लासेज तो होती नहीं थीं।
तेज गर्मी में दिन भर घूमते, लेकिन शायद ही कभी बीमार पड़े या लू लगी। जो मिला, वही खा लिया। आज सोचता हूं तो लगता है, शहर ने आधा अपाहिज बना दिया है। पहले सोने के लिए डांट पड़ती, अब नींद ही नहीं पूरी होती। तब शायद संक्रमण जैसा कोई शब्द नहीं था, अब हर चीज संक्रमित लगती है। तब सूरज तपा कर जाने कब ढल जाता था, अब ऐसी में बैठने पर भी डी-हाईड्रेशन हो जाता है। तब बारिश में खूब नहाते थे, अब भीगने मात्र से छींक आने लगती है।
खलील जिब्रान के कोट के साथ यादों के संसार से अब वापस लौटना चाहूंगा।बीता कल आज की याद है और आने वाला कल आज का स्वप्न।
सोमवार, 20 जून 2011
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