गुरुवार, 5 मई 2022

सरदार! हमने आपका राशन खाया है

...तो अब ये महंगाई तुझे खाएगी?

अरे! ओ सांभा! रामगढ़ की क्या रिपोर्ट है

बहुत शानदार सरदार। 

GST उगाही अब तक के अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। जुलाई, 2017 में जब से आपने इसे लागू किया तब से पहली बार इस अप्रैल में 1.68 लाख करोड़ रुपए की टैक्स वसूली हुई। यही नहीं, तकरीबन 33.5% की ग्रोथ के साथ ग्रॉस टैक्स कलेक्शन(वित्तीय वर्ष अप्रैल 2021 से मार्च 2022 तक) 27.07 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच गया। यह हमारे बजट अनुमान से भी करीब 5 लाख करोड़ ज्यादा है सरदार।

इसमें डायरेक्ट टैक्स(इनकम+ काॅर्पोरेट टैक्स) की हिस्सेदारी 14.10 लाख करोड़ रुपए है। लगभग 49% की दर से इसका विकास हुआ। यह भी हमारे अनुमान से 3 लाख करोड़ ज्यादा है। अप्रत्यक्ष कर (एक्साइज) वसूली में 20 फीसद की ग्रोथ दर्ज की गई है। कुल मिलाकर रामगढ़ वाले हमारा खजाना तबीयत से भर रहे हैं सरदार।

बस, थोड़े त्रस्त हैं बेचारे। 

कह रहे थे- महंगाई ने बेहाल कर दिया है। पेट्रोल 122 रुपए/लीटर, सिलेंडर 1000 का, खाने-पीने के चीजों में आग लगी है। आलू, प्याज, टमाटर के बाद नींबू ने भी निचोड़ लिया। कमाने वाला एक, खाने वाले अनेक और ऊपर से चौतरफा महंगाई डायन बहुत नाइंसाफी है सरदार।

हूं। अच्छा रामगढ़ के चमचे, तू ये बता-

एक लीटर खाने का तेल, एक किलो नमक, एक किलो चना और घर के हर सदस्य के हिसाब से 5 किलो गेहूं/चावल जो मुफ्त में मिल रहा वो? क्या है वो? 

...और तो और तेरे छोटे सरदार ‘जोगिया’ ने दोबारा गद्दी संभालते ही फ्री अनाज की स्कीम को तीन महीने के लिए और बढ़ा दिया है। मुफ्त गैस कनेक्शन का घर-घर में 'उज्जाला' कर दिया, उसका कुछ नहीं?

अरे, ये रामगढ़ वाले न। मिडिल क्लास की मानसिकता से ऊपर नहीं उठ पाएंगे! 

यहां देश का नाम हो रहा। दुनिया में हमारा डंका बज रहा है। गंगा भले ही सूख रही हो, प्रदूषित हो रही हो, विकास की नदी अपने ऊफान पर है। भारत विश्व गुरू बनने वाला है और इन्हें, दो जून की रोटी की ही पड़ी रहेगी। देशविरोधियों से इनका बहुत याराना लगता है!

रामगढ़ वालो! इस महंगाई के ताप से तुम्हें िसर्फ एक ही चीज बचा सकती है और वो है खुद महंगाई।

जी, सरदार। और आपने तो कह ही दिया कि ये रतनगढ़, राजगढ़, देवगढ़, जूनागढ़, चुनारगढ़ और भवानीगढ़ वाले डीजल-पेट्रोल पर वैट नहीं घटा रहे, नहीं तो कीमतें इतनी गिर जाएं कि खुद ओपेक(देश) हमसे खरीदने लगे।


कितने आदमी थे?

आदमी नहीं, बुलडोजर थे सरदार।

बुलडोजर! हमारे रामगढ़ में बुलडोजर।

जी, सरकार। 

अब यहां से पच्चास पच्चास कोस दूर जब कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती हैसो जा नहीं तो बुलडोजर आ जाएगा!

और फिर भी तुम घोड़े पर बैठकर दुम दबाकर भाग आए।

क्या सोचा था? सरदार खुश होगा, इनाम में बुजडोजर देगा।

 हम्म। अब तेरा क्या होगा कालिया?

सरदार! हमने आपका राशन खाया है।

...तो अब ये महंगाई तुझे खाएगी। हाहा..।

अरे, ओ सांभा

होली कब है कब है होली?

सरदार! 

छोटी वाली इसी दिसंबर में गुजरात में और 2023 में राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और नार्थ ईस्ट में।

फिर 2024 में महाहोली। एकदम लट्‌ठमार वाली सरकार।

अरे, ये मोटा सरदार कहां मर गया?

सरदार, वो तो एक के एक बाद होली की तैयारियों में व्यस्त हैं, उसी की रणनीति को लेकर आज मीटिंग बुलाई है, इसलिए वह रतनगढ़ के दौर पर हैं।

हम्म

तभी गब्बर सिंह अपने हाथ पर चढ़ रही चींटी काे मसल दिया गांव से आंखों में हजारों सपने लिए शहर जा रहा एक और अहमद बेकारी, बेरोजगारी की भीड़ में कहीं खो गया। इसी के साथ एक और रहीम चाचा की जिंदगी में सन्नाटा छा जाता है

(डिस्क्लेमर- यह कथानक काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है। इसका किसी मृत या जीवित व्यक्ति, भूत या प्रेतात्माओं, सूक्ष्मात्माओं से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी यदि कोई शख्सियत, दल-संगठन, समाज, समुदाय, संस्था खुद को रत्तीभर भी जुड़ा हुआ या आहत महसूस करती है तो वो बस एक संयोग मात्र है।)

शुक्रवार, 25 मार्च 2022

बाईलाइन:  मेरा गांव शुद्धता, सत्यता की गारंटीहै, शहर तुम मि...

बाईलाइन:  मेरा गांव शुद्धता, सत्यता की गारंटी, शहर तुम मि...:   मेरा गांव शुद्धता, सत्यता की गारंटी है, शहर तुम मिलावट का गाेरखधंधा... आज बस यूं ही, गांव याद आ गया। सच तो ये है, शहर शहर भटकते 25 साल ग...

 मेरा गांव शुद्धता, सत्यता की गारंटी, शहर तुम मिलावट का गाेरखधंधा...

आज बस यूं ही, गांव याद आ गया। सच तो ये है, शहर शहर भटकते 25 साल गुजर गए, सड़क छोड़ती वो पगडंडी आज भी वैसे ही महकती है। उसी अपनेपन से बुलाती है। हमने गांव छोड़ा, गांव हमें आज भी पकड़े हुए है। नामुराद शहरों ने तो कभी अपनाया ही नहीं। पेड़ों से छनकर आती चटक धूप, बदन में सिहरन बनकर दौड़ती अलसुबह की वो ठंडी पुरवाई, झर झर भिगोते आषाढ़-सावन, हडि्डयों को बर्फ कर देने वाली पूस की रात और मदमस्त करने वाला माघ-फागुन। तुम्हारा हर एक दिन, हर एक मौसम जिंदगी है, ताजगी है, हंसी-खुशी से भरा है और हम दौड़ते-भागते शहरों में बूढ़े हो चले...।

वो भरी दुपहरी में मां-बाप का डांट-डपटकर सुलाना। उनकी आंख लगते ही हमारा घर से भाग जाना। बगिया में यारों की महफिल जम चुकी होती थी या सब एक-एक कर घरवालों से नजरें चुराकर जुट रहे होते थे। गिल्ली-डंडा, गिट्‌टक, लच्ची-डांड, कंचे (गोली) खेलना। चीथड़ों को सिलकर बनाई गई गेंद। आम-अमरूद, बेल, फरेंद-जामुन, अमरा, अंबार तोड़कर खाते रहना। आज के डिजीटल बच्चे अपनी हाइट के बराबर पेड़ पर भी शायद ही चढ़ पाते होंगे? धूल फांकते, धूप खाते, ताल में नहाते और बरसात में भीगते जाने कब वक्त आ गया सबकुछ छोड़कर आने का। वो चकरोट, खलिहान, नहर, पोखर, ताल-तलैया, मीलों तक परती पड़े खेत, उतने ही कोठार-बखार भर देने को आतुर फसलों से लहलहाते खेत। वो फटेहाल अमीरी, हमउम्रों का झुंड...। सब छूट गया सिर्फ एक नौकरी के लिए...। बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिए, बीमार और बूढ़े मां-बाप की दवाई के लिए...। ईएमआई के लिए...। वरना क्या नहीं है हमारे गांवों के पास। हम गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं देने के बजाय, गांवों को शहर बनाते रहे। अब शहर गांव के गांव, खेत के खेत लीले जा रहे हैं...।

खैर, बात उसकी, जिस पर तेरा जिक्र आया, तेरी कहानी याद आई और मुझमें मेरा गांव उतर आया...। ऑफिस में दोपहर का सामूहिक भोज चल रहा था। यूं तो रूटीन है, लेकिन आज राजस्थानी जायकों के बीच था यूपी(पूर्वांचल) का स्वाद। उसने अपने हमसफर के बिना ही सुर्खियां बटोरी। राजस्थान डीबी डिजिटल की वीडियो टीम को हेड कर रहे वेदकांत शर्मा जी बिना लिट्‌टी के चोखा लाए थे। ब्रज प्रदेश के रहने वाले हैं। बकमाल! क्या हुनर पाया है शर्मा जी ने। उनके आगे अच्छे-अच्छे खानसामे पानी भरें। कुछ भी बनवा लीजिए, जनाब! अंगुलियां चाटते रह जाएंगे। पूर्वांचल का लिट्‌टी चोखा, अवध का भौरी भर्ता और राजस्थान का दाल-बाटी। इन्हीं जायकों के बखान के बीच चर्चा और गंवई होती गई। डीबी डिजिटल भोपाल के साथी जनार्दन पांडेय जी भी आजकल जयपुर आए हुए हैं। होनहार पत्रकार हैं। डिजिटल पत्रकारिता और युवा रीडर्स की पंसद, नपसंद बखूबी समझते हैं। सोनभद्र के हैं, सो भद्र तो हैं ही। पांडेय जी ने लकड़ी कंडे से जलते चूल्हे, नई नई ब्याई गाय-भैंस के पेउस की खिंझड़ी (खीस), नियाई की आग में दिनभर औटते दूध-दही, देसी घी की बातें छेड़ी तो मेरे भीतर दुबका बैठा गांव कुलबुला उठा और मैं खुद को फिर सड़क से उतरती उसी पगडंडी पर पाया। शाम का धुंधलका...। छोर पर बने घरों में टिमटिमाती रोशनी और तकरीबन हर रसोई से आ रही एक जैसी खुशबू। वो मिट्‌टी की महक, वो ताजे गोबर की गंध...।

गांव शुद्धता, सत्यतता की गारंटी है और शहर तुम मिलावट का गाेरखधंधा, भ्रष्टाचार हो...।

आज इतना ही...। गांव नहीं जा पा रहे तो जसवंत सिंह की ये गजल सुनिए और अपने गांव को जी लीजिए...।

वक्त का ये पारिंदा रुका है कहां

मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा

चार पैसे कमाने मैं आया शहर,

गांव मेरा मुझे याद आता रहा...।

बाकी जो है सो हइय है...। विकास की फाइलें टेबल टेबल नाच रही हैं... आजकल तो हर तरफ एक ‘फाइल्स’ की भी बड़ी धूम है...। जमीन पर कुछ हो न हो...।