पैसों के आगे बौना पड़ा हर रिश्ता
संयुक्त परिवार अब कहां बसता
एकल में भी नहीं दिखती अब एकता
आखिर यह आदमी करना क्या चाहता
नहीं रहा मूल्य कोई
संस्कृति, मर्यादा और संस्कारों का
ऐसे में कैसे बच पाएगा
वजूद भारतीय परिवारों का
आधुनिकता के फूहड़पन में
आदमी गया सब भूल
भोग,विलास,मनमर्जी और आजादी के लिए
कुचल दिए प्रेम और श्रद्धा के फूल
पल में बनते, पल में बिगड़ते
जाने कैसे नाते हैं
अपनों के लिए वक्त कहां
ट्वीटर और फेसबुक पर
सब रिश्ते निभाए जाते हैं
इतना मत भाग, थक जाएगा
छोड़ गया जिस आंगन को
वहीं सहारा पाएगा
संयुक्त परिवार में
आजादी कम थी पर सुरक्षा ज्यादा
अटेंशन कम था पर एहसास ज्यादा
जहां नींद के लिए
नहीं खानी पड़ती हैं गोलियां
जहां बिन बुलाए ही
चली आती हैं खुशियां
चिंता, परेशानी से वास्ता नहीं पड़ता
क्योंकि
पूरे परिवार में कोई अधूरा नहीं रहता
विश्व परिवार दिवस, 15 मई के अवसर पर उन चंद खुशनसीबों को बधाई जो पीढ़ियों से साथ रहते आए हैं।
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क्या बात है मुकेश जी. हमलोग संयुक्त परिवार से होकर भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पा रहे हैं. गिरजेश
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