उत्तर प्रदेश के किसी हिस्से में देहात का महासागर और उमस भरे बरसाती मौसम में अलसाई सांझ। कुदरत के कैनवास पर बहुतेर रंग भरता सूरज बादलों में छिपता-छुपाता कल तैयारी कर रहा है. रास्ते वही, खेत-खलिहान वही, लेकिन रात में पूरी दुनिया घूमकर सूरज जब गांव में फिर लौटेगा तब शायद सुबह नई होगी।
आजकल इंसानों और भेड़-बकरियों में कितना ही फर्क बचा है, शाम की सैर करके दोनों ही बोझिल कदमों से घरों को लौट रहे हैं. कहना मुश्किल है कौन किसको चरा रहा था.
गांव-गांव को शहर पहुंचाती मैं एक पगडंडी. वर्तमान को गिरवी रखकर जाने कितने युवा बेहतर भविष्य के लिए शहर चले गए, मैं वहीं की वहीं ठहरी रही. घर-परिवार की रौनक जवान लड़के-लड़कियों के गांव के जाने के बाद बहुत कुछ ठहर गया. वो थे तब हर शाम जैसे दिवाली थी, हर दिन मेला जैसा. अब ज्यादातर घरों में अंतहीन इंतजार करतीं बूढ़ी आंखें बसती हैं. उन आंखों में जब तब सुकून के आंसू बहते रहते हैं कि बच्चा जहां भी होगा, सुखी होगा पर शहर जाने वाले कभी लौट नहीं पाए...
गांव की पुलिया, करीब-करीब हर गांव में राजनीति-चकल्लस का अभिन्न अड्डा। विचारधारा की गुटबंदी के हिसाब से दोनों तरफ लोग बैठते थे और बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों को चुटकी में निपटा देते। इनकी चर्चा-परिचर्चा सुनकर यकीन ही नहीं पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यूएन, डब्ल्यूएचओ जैसी वैश्विक संस्थानों की परिकल्पना एक तरह से फिजूल और मूर्खताभरी सोच ही रही होगी. जाने कितनी सरकारें यहां रोज बनती और गिरती हैं. ट्रंफवा, मोदिया, जोगिया... जाने कितनों की इनके दरबार में रोज पेशी होती है. हालांकि बदलते समय के साथ इसका स्वरूप भी बदल गया, अब चकल्लसबाजों का अड्डा है चाय की टपरी.
पुलिया पर बैठे एक किसान की भी दुकान सजी है, लेकिन खरीदार कोई नहीं है. गांव की यही शुद्ध और ताजी चीजें शहर पहुंचते-पहुंचते प्रदूषित हो जाती हैं और मनमाने दामों में बिकती हैं. शहर को गांव बहुत कुछ देता है, बदले में पाता शायद कुछ भी तो नहीं!
इस छोटी सी बतकही में एक छोटा सा किरदार मैं. गांव-गिरांव, नदी-पोखरे, पेड़-पल्लव-जंगल, खेत-खलिहान बहुत याद आते हैं. बाकी युवाओं की तरह मैं भी शहर गया था कमाने। सालों बाद पाता हूं कि जिंदगी की बैलेंसशीट में बहुत कुछ माइनस है.
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