Anna is calling
Where’re you.
India is with Hazare
Where’re you.
Everyone woke up against corruption
Where’re you.
People are fighting to end injustice
Where’re you.
This phase will never come again
Where’re you.
An 80 year old man became
Role model of millions of youth
Where’re you.
Fighting for your own cause
He’s no vested interest
He came out just for
Better tomorrow
Where’re you.
Let Aam Admi teach a lesson to
Selfish and corrupt leaders
Make the movement a big success.
Join and support Team Anna.
बुधवार, 10 अगस्त 2011
मंगलवार, 5 जुलाई 2011
एमएम गोंडवी
नौसिखुआ शायर एमएम गोंडवी की चंद पक्तियां। मुद्दा क्या और अवसर क्या जो भी आया वही लिख दिया। कहते हैं खाली दिमाग में चवन्नी छाप शायर बसता है। ये लाइनें उन्हीं चवन्नियों को समर्पित हैं, जो 30 जून से हमारे बीच से हटा ली गईं।
गुदगुदी
गुदाज बांहें जब उसने मुस्कुरा कर मेरे गले में डालीं,
तो ख्याल आया,
गला घोंटने का अंदाज अच्छा है।
दर्द दिल उनको सुनाएं कैसे,
वो तो हेडफोन लगाए फिरते हैं।
उनकी अदाओं पर हम यूं ही मर मिटे
हम बह गए ज्जबातों में, वो नामी अदाकारा थी।
उनके हुस्न के दीदार से बिजली गिरी हम पर
कहते हैं लूटने वालों की कोई जात नहीं होती।
उनकी मोहब्बत में पपीहा बना फिरता हूं
सुना है इस बार स्वाति में बारिश के योग नहीं बनते।
शहर में उनकी बेवफाई का था चर्चा सरेआम,
चले थे जिनसे हम प्यार का ककहरा सीखने।
उनकी मोहब्बत में हम कंकाल हो गए,
खुदा उनको बचाए जो अब मालामाल हो गए।
अलविदा
जनाजे में किसी के अब जाते नहीं लोग,
एक लाश दूसरी को कांधा नहीं देती।
फक लिबास उतारने की फुर्सत कहां,
हर रोज गली में एक लाश निकलती है।
अपने कंधों पर अपनी लाश उठाए फिरते हैं,
कहते हैं आजकल जीने का अंदाज ही कुछ ऐसा है।
मेरे गुनाहों की सजा किसी और को न दे
ऐ खुदा,
क्या तेरी भी नीयत इंसां जैसी बदलती है।
अलविदा के बाद भी रस्मों का वास्ता
इसको श्मशान, उसको कब्रिस्तान में दफनाया।
बरसात
बेमौसम बरसात का आलम ही कुछ ऐसा है,
किसी के हिस्से बूंद आई, कोई ताउम्र प्यासा है।
कल रात की तेज बारिश में भी रह गए सूखे,
मन को कर सके जो तर बतर,
ऐसी बारिश आसमां से नहीं होती।
कहीं बुझाती तो कहीं जलाती बारिश
कहीं डुबाती तो कहीं पार लगाती बारिश
ये तो अपनी.अपनी किस्मत है
यहां हर रस्म निभाती बारिश।
बारिश में नहाकर धुल गया पत्ता.पत्ता
दिलों के मैल न धुले अलबत्ता।
बारिश का पानी चढ़ता है, उतर जाता है,
आंखों का पानी उतरे तो कहां चढ़ता है।
सोमवार, 20 जून 2011
चार मित्र और शरबते बेल
आज रात तीसरे पहर तेज हवाएं चली थीं। तपते मई-जून में मौसम का मिजाज बदलने से लोगों ने काफी राहत महसूस की। कामकाज समेट कर अखबार के दफ्तर से घर जा रहे चार दोस्त एक और वजह से खुश थे। बसंत, पुष्कर, डब्बू और पुत्तू लंबे-लंबे डग भरते बेल के पेड़ के नीचे पहुंचे। वहां जमीन पर गिरे दो सुनहरे बेल देखकर सभी के चेहरे खिल गए। लुधियाना की इस भीषण गर्मी में शरबते बेल की ठंडाई का इंतजाम जो हो गया था।
दैनिक भास्कर कार्यालय और हमारे किराए के ठिकाने के रास्ते में पड़ने वाले इस बेल के पेड़ से हमारा एक अजीब सा नाता जुड़ गया था। रात्रि के करीब 1.30 बजे हम चारों निचुड़कर दफ्तर से निकलते, लेकिन बेल के पेड़ के पास पहुंचते ही ऊर्जावान हो उठते। इस पेड़ ने शायद ही हमें कभी निराश किया। जिस किसी दिन बेल नहीं मिलता, चारों मायूस होकर आगे बढ़ते। आज क्या हवा नहीं चली या फिर लाठी पीटने और सीटी बजाने वाले मोहल्ले के चौकीदार ने बाजी मार ली। खैर यह प्रकृति ही तो है जो अमीर-गरीब, छोटे-बड़े में भेदभाव नहीं करती। काश, इस समरसता को इंसानी जात भी अंगीकार कर पाती।
वक्त के उस दौर को गुजरे दो साल से ज्यादा हो गए हैं। शहर में ठेले पर बिक रहे पके बेलों पर सहसा नजर पड़ी तो मन पंछी उड़ चला। गर्मी में प्रायः रोज ही बेल का शरबत तैयार करने तथा हम सभी का एक साथ बैठ कर पीने की यादें कुलबुलाने लगीं। घंटे-डेढ़ घंटे के जमावड़े में हम देश-दुनिया की घटनाओं, राजनीति, कार्यालय निंदाकांड और जाने क्या-क्या निपटा देते थे। अलग सोच, भिन्न पृष्ठभूमि-मत तथा अलहदा कार्यशैली होने के बावजूद चारों मित्रों में गजब का तालमेल था।
कार्यालय में बसंत, डब्बू और पुत्तू जनरल डेस्क तथा पुष्कर शहर पर थे, जबकि आवासीय व्यवस्था में डब्बू, पुष्कर और पुत्तू एक साथ मैं, बसंत अलग रहता था। शादी-शुदा होने से मैं कई और खुशनुमा एहसास से वंचित रह जाता था। कभी-कभी मन फिर से कुंवारा होने के लिए मचल उठता था। जब कभी बीवी-बच्चे गांव चले जाते थे, तब मैं पूरी तरह समर्पित होकर तिकड़ी को चौकड़ी बना देता था।
डब्बू वामपंथी विचारधारा से प्रभावित नेक इंसान हैं। इतिहास के अच्छे जानकार और अपनी जानकारी पर अटल। अब क्षत्रिय हैं तो बात-व्यवहार में उसकी झलक मिलेगी ही। बाकी तीनों कहने को ब्राह्मण। पुत्तू शुक्ल तथा बसंत, पुष्कर मिश्र। पुष्कर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को समझने वाले बहुत ही सुलझे व्यक्ति हैं। ब्राह्मण होने पर उनको गर्व है और अपनी सभ्यता-संस्कृति, जो कुछ बची-खुची है पर नाज भी करते हैं। कहते हैं, पुष्कर चिकन बहुत ही उम्दा बनाते हैं। जाहिर है पैग तो अच्छा बनता ही होगा। पुत्तू कम उम्र में बड़ी जिम्मेदारी संभालने, छोटे कद व बड़े दिमाग वाले नौजवान हैं। आधुनिक जीवनशैली के चाहवान शुक्ल जी आजकल एक खास तैयारी में जुटे हैं, प्रभु उन्हें सफलता दें। मैं अपने बारे में खुद क्या लिखूं। बड़ा अफसोस होता था कि तीनों मुझे अतिरिक्त भाव देते हैं। वह शायद उम्र और पद में वरिष्ठ होने के नाते, लेकिन घाटा तो मेरा ही था। एक अदृश्य दीवार सी बन जाती थी। जो खुलापन, निश्चलता, सरलता, सहजता उन तीनों की आपस में रहती थी, मेरे समूह में शामिल होते ही माहौल में थोड़ी सतर्कता आ जाती थी।
मजमा कुंवारों के कमरे पर ही लगता था। वाद-विवाद में सा से शुरू होकर स्वर पा तक पहुंचते-पहुंचते तीखा हो जाता था। ज्यादातर बहसों के जनक पुष्कर व डब्बू ही होते थे। जाहिर है कि बकचोदी जैसे आसान काम में कौन हाथ बटाना नहीं चाहेगा। पुत्तू उन दिनों प्रशिक्षु वामपंथी थे, इसलिए झुकाव गुरु डब्बू की ओर ही होता था। वैसे गुरु-चेले में कम ही पटती थी। वजह गुरु का चेले को बच्चा समझना जबकि वह बड़ा हो चुका था। मैं निष्पक्ष रहने के प्रयास में जाने कब धुर दक्षिणपंथी पुष्कर की लाइन पकड़ लेता। व्यवहार में चारों निरपेक्ष, सच के संगी, साफ दिल के और इंसानी भावनाओं का महसूस करने वाले हैं। अतः बहस का पटाक्षेप होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता था। मुद्दे ही कुछ ऐसे होते थे जो हमें उलझा देते थे। मोदी-गुजरात, कांग्रेस-भाजपा, धर्म-शास्त्र व वेदों की बातें, सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, पूंजीवाद आदि आदि। तमाम कठिनाइयों, अभावों के बावजूद वह दौर बढ़िया बीता।
सबसे छोटा पुत्तू आजकल हिंदुस्तान बरेली में बड़ा मुलाजिम है। अक्तूबर, 2009 सबसे पहले उसी ने शहर छोड़ा। जून 2010 में डब्बू प्रभात खबर, मुजफ्फरपुर चले गए। फिर पुष्कर का जुलाई 2010 में भास्कर रांची में तबादला हो गया। अब रांची में डब्बू और पुष्कर पुनः साथ रहने का आनंद उठा रहे हैं। मुझे तो अभी पंजाब की उपजाऊ माटी छोड़ नहीं रही।
जब चारों बैठते तो हमारा व्यवहार निरा देहाती होता था। गांव-देहात की यादें, वहीं की बोली। रहन-सहन में सादगी। कोई दिखावा, कोई बनावट नहीं। हम सभी ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े, शुरुआती शिक्षा भी वहीं पाई। हां पुत्तू ऐसे माहौल में शायद कम रहा है। मुझे शहरी जीवन रास नहीं आता। मैं आज भी गांव के दिनों को याद करके रोमांचित हो उठता हूं। मन करता है कि वहीं भाग जाऊं। जेठ की भरी दुपहरी में बड़ों की डांट पड़ती था कि सो जाओ। बाहर मत जाना लू लग जाएगी। लेकिन किशोरों की टोली भला कब मानने वाली। घर वालों की आंख लगी नहीं कि लड़के नौ दो ग्यारह। सारी दुपहरिया यह टोली कभी इस बगिया तो कभी उस बगिया। आम, बेल, जामुन तोड़ते-खाते दोपहर कट जाता था। गर्मियों की छुट्टियों में हमारा बस यही काम था। उस जमाने में समर क्लासेज या हाबी क्लासेज तो होती नहीं थीं।
तेज गर्मी में दिन भर घूमते, लेकिन शायद ही कभी बीमार पड़े या लू लगी। जो मिला, वही खा लिया। आज सोचता हूं तो लगता है, शहर ने आधा अपाहिज बना दिया है। पहले सोने के लिए डांट पड़ती, अब नींद ही नहीं पूरी होती। तब शायद संक्रमण जैसा कोई शब्द नहीं था, अब हर चीज संक्रमित लगती है। तब सूरज तपा कर जाने कब ढल जाता था, अब ऐसी में बैठने पर भी डी-हाईड्रेशन हो जाता है। तब बारिश में खूब नहाते थे, अब भीगने मात्र से छींक आने लगती है।
खलील जिब्रान के कोट के साथ यादों के संसार से अब वापस लौटना चाहूंगा।बीता कल आज की याद है और आने वाला कल आज का स्वप्न।
दैनिक भास्कर कार्यालय और हमारे किराए के ठिकाने के रास्ते में पड़ने वाले इस बेल के पेड़ से हमारा एक अजीब सा नाता जुड़ गया था। रात्रि के करीब 1.30 बजे हम चारों निचुड़कर दफ्तर से निकलते, लेकिन बेल के पेड़ के पास पहुंचते ही ऊर्जावान हो उठते। इस पेड़ ने शायद ही हमें कभी निराश किया। जिस किसी दिन बेल नहीं मिलता, चारों मायूस होकर आगे बढ़ते। आज क्या हवा नहीं चली या फिर लाठी पीटने और सीटी बजाने वाले मोहल्ले के चौकीदार ने बाजी मार ली। खैर यह प्रकृति ही तो है जो अमीर-गरीब, छोटे-बड़े में भेदभाव नहीं करती। काश, इस समरसता को इंसानी जात भी अंगीकार कर पाती।
वक्त के उस दौर को गुजरे दो साल से ज्यादा हो गए हैं। शहर में ठेले पर बिक रहे पके बेलों पर सहसा नजर पड़ी तो मन पंछी उड़ चला। गर्मी में प्रायः रोज ही बेल का शरबत तैयार करने तथा हम सभी का एक साथ बैठ कर पीने की यादें कुलबुलाने लगीं। घंटे-डेढ़ घंटे के जमावड़े में हम देश-दुनिया की घटनाओं, राजनीति, कार्यालय निंदाकांड और जाने क्या-क्या निपटा देते थे। अलग सोच, भिन्न पृष्ठभूमि-मत तथा अलहदा कार्यशैली होने के बावजूद चारों मित्रों में गजब का तालमेल था।
कार्यालय में बसंत, डब्बू और पुत्तू जनरल डेस्क तथा पुष्कर शहर पर थे, जबकि आवासीय व्यवस्था में डब्बू, पुष्कर और पुत्तू एक साथ मैं, बसंत अलग रहता था। शादी-शुदा होने से मैं कई और खुशनुमा एहसास से वंचित रह जाता था। कभी-कभी मन फिर से कुंवारा होने के लिए मचल उठता था। जब कभी बीवी-बच्चे गांव चले जाते थे, तब मैं पूरी तरह समर्पित होकर तिकड़ी को चौकड़ी बना देता था।
डब्बू वामपंथी विचारधारा से प्रभावित नेक इंसान हैं। इतिहास के अच्छे जानकार और अपनी जानकारी पर अटल। अब क्षत्रिय हैं तो बात-व्यवहार में उसकी झलक मिलेगी ही। बाकी तीनों कहने को ब्राह्मण। पुत्तू शुक्ल तथा बसंत, पुष्कर मिश्र। पुष्कर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को समझने वाले बहुत ही सुलझे व्यक्ति हैं। ब्राह्मण होने पर उनको गर्व है और अपनी सभ्यता-संस्कृति, जो कुछ बची-खुची है पर नाज भी करते हैं। कहते हैं, पुष्कर चिकन बहुत ही उम्दा बनाते हैं। जाहिर है पैग तो अच्छा बनता ही होगा। पुत्तू कम उम्र में बड़ी जिम्मेदारी संभालने, छोटे कद व बड़े दिमाग वाले नौजवान हैं। आधुनिक जीवनशैली के चाहवान शुक्ल जी आजकल एक खास तैयारी में जुटे हैं, प्रभु उन्हें सफलता दें। मैं अपने बारे में खुद क्या लिखूं। बड़ा अफसोस होता था कि तीनों मुझे अतिरिक्त भाव देते हैं। वह शायद उम्र और पद में वरिष्ठ होने के नाते, लेकिन घाटा तो मेरा ही था। एक अदृश्य दीवार सी बन जाती थी। जो खुलापन, निश्चलता, सरलता, सहजता उन तीनों की आपस में रहती थी, मेरे समूह में शामिल होते ही माहौल में थोड़ी सतर्कता आ जाती थी।
मजमा कुंवारों के कमरे पर ही लगता था। वाद-विवाद में सा से शुरू होकर स्वर पा तक पहुंचते-पहुंचते तीखा हो जाता था। ज्यादातर बहसों के जनक पुष्कर व डब्बू ही होते थे। जाहिर है कि बकचोदी जैसे आसान काम में कौन हाथ बटाना नहीं चाहेगा। पुत्तू उन दिनों प्रशिक्षु वामपंथी थे, इसलिए झुकाव गुरु डब्बू की ओर ही होता था। वैसे गुरु-चेले में कम ही पटती थी। वजह गुरु का चेले को बच्चा समझना जबकि वह बड़ा हो चुका था। मैं निष्पक्ष रहने के प्रयास में जाने कब धुर दक्षिणपंथी पुष्कर की लाइन पकड़ लेता। व्यवहार में चारों निरपेक्ष, सच के संगी, साफ दिल के और इंसानी भावनाओं का महसूस करने वाले हैं। अतः बहस का पटाक्षेप होते ही सब कुछ पहले जैसा हो जाता था। मुद्दे ही कुछ ऐसे होते थे जो हमें उलझा देते थे। मोदी-गुजरात, कांग्रेस-भाजपा, धर्म-शास्त्र व वेदों की बातें, सामाजिक भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, पूंजीवाद आदि आदि। तमाम कठिनाइयों, अभावों के बावजूद वह दौर बढ़िया बीता।
सबसे छोटा पुत्तू आजकल हिंदुस्तान बरेली में बड़ा मुलाजिम है। अक्तूबर, 2009 सबसे पहले उसी ने शहर छोड़ा। जून 2010 में डब्बू प्रभात खबर, मुजफ्फरपुर चले गए। फिर पुष्कर का जुलाई 2010 में भास्कर रांची में तबादला हो गया। अब रांची में डब्बू और पुष्कर पुनः साथ रहने का आनंद उठा रहे हैं। मुझे तो अभी पंजाब की उपजाऊ माटी छोड़ नहीं रही।
जब चारों बैठते तो हमारा व्यवहार निरा देहाती होता था। गांव-देहात की यादें, वहीं की बोली। रहन-सहन में सादगी। कोई दिखावा, कोई बनावट नहीं। हम सभी ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े, शुरुआती शिक्षा भी वहीं पाई। हां पुत्तू ऐसे माहौल में शायद कम रहा है। मुझे शहरी जीवन रास नहीं आता। मैं आज भी गांव के दिनों को याद करके रोमांचित हो उठता हूं। मन करता है कि वहीं भाग जाऊं। जेठ की भरी दुपहरी में बड़ों की डांट पड़ती था कि सो जाओ। बाहर मत जाना लू लग जाएगी। लेकिन किशोरों की टोली भला कब मानने वाली। घर वालों की आंख लगी नहीं कि लड़के नौ दो ग्यारह। सारी दुपहरिया यह टोली कभी इस बगिया तो कभी उस बगिया। आम, बेल, जामुन तोड़ते-खाते दोपहर कट जाता था। गर्मियों की छुट्टियों में हमारा बस यही काम था। उस जमाने में समर क्लासेज या हाबी क्लासेज तो होती नहीं थीं।
तेज गर्मी में दिन भर घूमते, लेकिन शायद ही कभी बीमार पड़े या लू लगी। जो मिला, वही खा लिया। आज सोचता हूं तो लगता है, शहर ने आधा अपाहिज बना दिया है। पहले सोने के लिए डांट पड़ती, अब नींद ही नहीं पूरी होती। तब शायद संक्रमण जैसा कोई शब्द नहीं था, अब हर चीज संक्रमित लगती है। तब सूरज तपा कर जाने कब ढल जाता था, अब ऐसी में बैठने पर भी डी-हाईड्रेशन हो जाता है। तब बारिश में खूब नहाते थे, अब भीगने मात्र से छींक आने लगती है।
खलील जिब्रान के कोट के साथ यादों के संसार से अब वापस लौटना चाहूंगा।बीता कल आज की याद है और आने वाला कल आज का स्वप्न।
शनिवार, 14 मई 2011
अपनों में अकेला
पैसों के आगे बौना पड़ा हर रिश्ता
संयुक्त परिवार अब कहां बसता
एकल में भी नहीं दिखती अब एकता
आखिर यह आदमी करना क्या चाहता
नहीं रहा मूल्य कोई
संस्कृति, मर्यादा और संस्कारों का
ऐसे में कैसे बच पाएगा
वजूद भारतीय परिवारों का
आधुनिकता के फूहड़पन में
आदमी गया सब भूल
भोग,विलास,मनमर्जी और आजादी के लिए
कुचल दिए प्रेम और श्रद्धा के फूल
पल में बनते, पल में बिगड़ते
जाने कैसे नाते हैं
अपनों के लिए वक्त कहां
ट्वीटर और फेसबुक पर
सब रिश्ते निभाए जाते हैं
इतना मत भाग, थक जाएगा
छोड़ गया जिस आंगन को
वहीं सहारा पाएगा
संयुक्त परिवार में
आजादी कम थी पर सुरक्षा ज्यादा
अटेंशन कम था पर एहसास ज्यादा
जहां नींद के लिए
नहीं खानी पड़ती हैं गोलियां
जहां बिन बुलाए ही
चली आती हैं खुशियां
चिंता, परेशानी से वास्ता नहीं पड़ता
क्योंकि
पूरे परिवार में कोई अधूरा नहीं रहता
विश्व परिवार दिवस, 15 मई के अवसर पर उन चंद खुशनसीबों को बधाई जो पीढ़ियों से साथ रहते आए हैं।
संयुक्त परिवार अब कहां बसता
एकल में भी नहीं दिखती अब एकता
आखिर यह आदमी करना क्या चाहता
नहीं रहा मूल्य कोई
संस्कृति, मर्यादा और संस्कारों का
ऐसे में कैसे बच पाएगा
वजूद भारतीय परिवारों का
आधुनिकता के फूहड़पन में
आदमी गया सब भूल
भोग,विलास,मनमर्जी और आजादी के लिए
कुचल दिए प्रेम और श्रद्धा के फूल
पल में बनते, पल में बिगड़ते
जाने कैसे नाते हैं
अपनों के लिए वक्त कहां
ट्वीटर और फेसबुक पर
सब रिश्ते निभाए जाते हैं
इतना मत भाग, थक जाएगा
छोड़ गया जिस आंगन को
वहीं सहारा पाएगा
संयुक्त परिवार में
आजादी कम थी पर सुरक्षा ज्यादा
अटेंशन कम था पर एहसास ज्यादा
जहां नींद के लिए
नहीं खानी पड़ती हैं गोलियां
जहां बिन बुलाए ही
चली आती हैं खुशियां
चिंता, परेशानी से वास्ता नहीं पड़ता
क्योंकि
पूरे परिवार में कोई अधूरा नहीं रहता
विश्व परिवार दिवस, 15 मई के अवसर पर उन चंद खुशनसीबों को बधाई जो पीढ़ियों से साथ रहते आए हैं।
गुरुवार, 5 मई 2011
बस सिर्फ एक दिन मां के लिए, क्यूं
ममता की मूरत है मां
धरा पर ईश्वर की सूरत है मां
बिन मांगी दुआ है मां
नारी का उत्कृष्ट रूप है मां
पूत कपूत सुने हों भले
माता नहीं कुमाता बनती
अपना दर्द न जाहिर करती
कांटों पर चलकर भी हंसती
खुद जागे, बच्चों को सुलाए
खुद से पहले उन्हें खिलाए
खुद की उसे चाह न कोई
प्यार, दुलार निःस्वार्थ लुटाए
आंचल में बच्चों का छुपाकर
उनको यह एहसास दिलाती
जब तक तेरी मां जिंदा है
कौन है जो तुझे हाथ लगाए
बुरी नजर से हमें बचाती
हमारी बलाएं खुद ले जाती
रहें सलामत हम दुनिया में
इसके निस्बत
मां निर्जला व्रत रख लेती
खुद का जीवन होम करके
पाल,पोष कर हमें बढ़ाती
मां की ममता का मोल न कोई
इसलिए है सारी दुनिया कहती
देवी जैसी मां के लिए
हम भी तो कुछ करें
उसकी ममता का मोल न चुका सकें तो
साल में सिर्फ एक दिन माता दिवस मनाकर
कम से कम उसे यूं अपमानित तो न करें
क्योंकि
सबसे धनी वही है भइया
जिसके पास है मइया
08 मई का तथाकथित मदर्स डे था। कितने लोंगो ने दो घड़ी का वक्त निकाल कर अपनी मां के चरणों में बैठकर, उसकी गोद में सिर रखकर उससे बातें कीं। ननिहाल की बातें, रोज सोते समय एक ही लोरी, वही एक ही काल्पनिक राजा, रानी की कहानी की बातें, उसके सुख व दुःख की कोमल यादों की बातें। यादों की इस भूली बिसरी पगडंडी पर डग भरते ही उसकी पथराई आंखें चमक उठती हैं। क्या हम उसे ऐसा सुख देंगे।
धरा पर ईश्वर की सूरत है मां
बिन मांगी दुआ है मां
नारी का उत्कृष्ट रूप है मां
पूत कपूत सुने हों भले
माता नहीं कुमाता बनती
अपना दर्द न जाहिर करती
कांटों पर चलकर भी हंसती
खुद जागे, बच्चों को सुलाए
खुद से पहले उन्हें खिलाए
खुद की उसे चाह न कोई
प्यार, दुलार निःस्वार्थ लुटाए
आंचल में बच्चों का छुपाकर
उनको यह एहसास दिलाती
जब तक तेरी मां जिंदा है
कौन है जो तुझे हाथ लगाए
बुरी नजर से हमें बचाती
हमारी बलाएं खुद ले जाती
रहें सलामत हम दुनिया में
इसके निस्बत
मां निर्जला व्रत रख लेती
खुद का जीवन होम करके
पाल,पोष कर हमें बढ़ाती
मां की ममता का मोल न कोई
इसलिए है सारी दुनिया कहती
देवी जैसी मां के लिए
हम भी तो कुछ करें
उसकी ममता का मोल न चुका सकें तो
साल में सिर्फ एक दिन माता दिवस मनाकर
कम से कम उसे यूं अपमानित तो न करें
क्योंकि
सबसे धनी वही है भइया
जिसके पास है मइया
08 मई का तथाकथित मदर्स डे था। कितने लोंगो ने दो घड़ी का वक्त निकाल कर अपनी मां के चरणों में बैठकर, उसकी गोद में सिर रखकर उससे बातें कीं। ननिहाल की बातें, रोज सोते समय एक ही लोरी, वही एक ही काल्पनिक राजा, रानी की कहानी की बातें, उसके सुख व दुःख की कोमल यादों की बातें। यादों की इस भूली बिसरी पगडंडी पर डग भरते ही उसकी पथराई आंखें चमक उठती हैं। क्या हम उसे ऐसा सुख देंगे।
शनिवार, 26 मार्च 2011
'अप्रेषित पत्र' पोस्ट करिये, उत्तर पाकर झूम उठिये
इधर कई महीनों से मेरा पढ़ने का क्रम बंद सा हो गया था। कुछ मेरे आलस्य ने योगदान दिया और कोई अच्छी पुस्तक भी नहीं मिली। खैर, अभी अभी मैंने एक बेहद उत्कृष्ट कृति समाप्त की है। ऐसी किताबें दुर्लभ होती हैं, जो आपके जीवन की दशा दिशा बदलने का अवयव अपने अंदर समाहित किये रहती हैं। 'अप्रेषित पत्र', उनमें से एक है। जीवन के तमाम झंझावातों से निकाल कर 'अप' आपको एक सहज और सरल मार्ग पर ले जाती है, जहां से आप खुशियां ही खुशियां बटोर सकते हैं। जिन्दगी के उन तमाम स्वाभाविक किन्तु जटिल सवालों का निहायत आसान हल इस पुस्तक में उपलब्ध है, जिनको समझते तथा सुलझाते हमारी उम्र निकल जाती है। 'अप' को पढ़ने के बाद आप पाएंगे कि कितने ही मसलों या मुद्दों पर आपका दृष्टिकोण कितना गैरजरूरी था। आध्यात्मिक गुरु टी टी रंग राजन द्वारा लिखी गई यह किताब आपका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटाती है। निराशा और हताशा में डूबे लोगों के लिये, यह नई सुबह की पहली किरण है जबकि भटके हुए लोगों के लिये एक आनंदमयी राह। जिंदा, लेकिन मरे हुए लोगों के लिए 'अप्रेषित पत्र' प्राणवायु है। आपको लग सकता है, अरे इसमें कोई नहीं बात नहीं, वही छोटी छोटी बातें हैं, जिनका हम रोजमर्रा ही सामना करते हैं और रोज इसे अपने तरीक से निपटाते भी हैं। लेकिन 'अप' में जीवन के हर सवाल का एक खुशनुमा हल वर्णित है। इसको पढ़ने के बाद चीजों को देखने और उन्हें समझने का आपका नजरिया ही बदल जाएगा। आप चाहें तो आपका पुनर्जन्म भी हो सकता है। भई, मुझे तो ऐसा ही लगा बाकी लोगों का कह नहीं सकते। वैसे भी किताबों का कोई बहुत बड़ा पारखी तो हूं नहीं मैं। बस दो चार किताबें पढ़ ली हैं। कालजयी रचनाओं से तो हमारा संसार अटा पड़ा, कुछ क्षणिक आनंदकारी होती हैं, कुछ अविस्मरणीय। लेकिन कई ऐसी हैं जो आपको सोचने के लिए बाध्य कर देती हैं। अफसोस करूं या फिर खुदकिस्मत समझूं, मुझे अब तक 'द अलकेमिस्ट व अप्रेषित पत्र' ही मिल सकी हैं। अब बात उस माध्यम की जिससे यह पुस्तक कुछ लोगों को मुफ्त में दी गई। पता नहीं कि वे पढ़ेंगे भी या नहीं। वैसे किताब खरीद कर पढ़ो तो मजा और उससे होने वाला लाभ दोगुना हो जाता है। यह पुस्तक मूलरूप से अंग्रेजी भाषा में है। दैनिक भास्कर के एमडी सुधीर अग्रवाल जी ने प्रकाशक को पत्र लिखकर इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने की सलाह दी। और फिर भास्कर परिवार के सदस्यों को कुछ प्रतियां मुहैया कराई हैं। सुधीर जी के इसी व्यवहार और ऐसे ही क्रियाकलापों से साबित होता है कि वे एक अखबार के मालिक, एक व्यवसायी के इतर कुछ और भी हैं। और शायद इसी तरह दैनिक भास्कर भी।
शुक्रवार, 18 मार्च 2011
अथ श्री थामस कथा
अथ श्री सीवीसी थामस कथा
कथा है ये भ्रष्टाचार की, स्वार्थ की
सारथी जिसके बने मनमोहन सरदार जी
नियुक्ति पर छीछालेदर और जब शुरू हुआ विरोध
अपनी करनी को सही ठहराने का शुरू हुआ राजयोग
पर रुक न सका काला चिट्ठा खुलने का अभियान
बार बार अदालत की फटकार पर भी
ढीठ बने रहे रहनुमा और थामस नादान
तर्क. कुतर्क सब व्यर्थ हुआ
जब चला सुप्रीम कोर्ट का कोड़ा
नहीं चला कोई दांव,तब जाकर मनमोहन ने
अपने प्रिय सीवीसी से मुंह मोड़ा
ईमानदार पीएम बेईमानों की टीम हैं बनाते
देश की जनता को भाड़ में झोंक
खुद निष्पाप, बेदाग होने का तमगा हैं पाते
इतने पर भी पर ढीठ थामस पीछे नहीं हटा
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ
महामहिम राष्ट्रपति के सम्मुख जाकर डटा
देने लगा संविधान तथा अधिकार क्षेत्र की दुहाई
पामोलिन में जब डुबकी थी लगाई
तब यह बात भेजे में क्यों न आई
थामस भाई
यदा यदा ही भ्रष्टाचारी प्रबलम् और विधायिका अक्षम भवित.........................
........ न्यायपालिका युगे युगे।
कथा है ये भ्रष्टाचार की, स्वार्थ की
सारथी जिसके बने मनमोहन सरदार जी
नियुक्ति पर छीछालेदर और जब शुरू हुआ विरोध
अपनी करनी को सही ठहराने का शुरू हुआ राजयोग
पर रुक न सका काला चिट्ठा खुलने का अभियान
बार बार अदालत की फटकार पर भी
ढीठ बने रहे रहनुमा और थामस नादान
तर्क. कुतर्क सब व्यर्थ हुआ
जब चला सुप्रीम कोर्ट का कोड़ा
नहीं चला कोई दांव,तब जाकर मनमोहन ने
अपने प्रिय सीवीसी से मुंह मोड़ा
ईमानदार पीएम बेईमानों की टीम हैं बनाते
देश की जनता को भाड़ में झोंक
खुद निष्पाप, बेदाग होने का तमगा हैं पाते
इतने पर भी पर ढीठ थामस पीछे नहीं हटा
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ
महामहिम राष्ट्रपति के सम्मुख जाकर डटा
देने लगा संविधान तथा अधिकार क्षेत्र की दुहाई
पामोलिन में जब डुबकी थी लगाई
तब यह बात भेजे में क्यों न आई
थामस भाई
यदा यदा ही भ्रष्टाचारी प्रबलम् और विधायिका अक्षम भवित.........................
........ न्यायपालिका युगे युगे।
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