मेरा गांव शुद्धता, सत्यता की गारंटी, शहर तुम मिलावट का गाेरखधंधा...
आज बस यूं ही, गांव याद आ गया।
सच तो ये है, शहर शहर भटकते 25 साल गुजर गए, सड़क छोड़ती वो पगडंडी आज भी वैसे ही महकती
है। उसी अपनेपन से बुलाती है। हमने गांव छोड़ा, गांव हमें आज भी पकड़े हुए है। नामुराद
शहरों ने तो कभी अपनाया ही नहीं। पेड़ों से छनकर आती चटक धूप, बदन में सिहरन बनकर दौड़ती
अलसुबह की वो ठंडी पुरवाई, झर झर भिगोते आषाढ़-सावन, हडि्डयों को बर्फ कर देने वाली
पूस की रात और मदमस्त करने वाला माघ-फागुन। तुम्हारा हर एक दिन, हर एक मौसम जिंदगी
है, ताजगी है, हंसी-खुशी से भरा है और हम दौड़ते-भागते शहरों में बूढ़े हो चले...।
वो भरी दुपहरी में मां-बाप का डांट-डपटकर
सुलाना। उनकी आंख लगते ही हमारा घर से भाग जाना। बगिया में यारों की महफिल जम चुकी
होती थी या सब एक-एक कर घरवालों से नजरें चुराकर जुट रहे होते थे। गिल्ली-डंडा, गिट्टक,
लच्ची-डांड, कंचे (गोली) खेलना। चीथड़ों को सिलकर बनाई गई गेंद। आम-अमरूद, बेल, फरेंद-जामुन,
अमरा, अंबार तोड़कर खाते रहना। आज के डिजीटल बच्चे अपनी हाइट के बराबर पेड़ पर भी शायद
ही चढ़ पाते होंगे? धूल फांकते, धूप खाते, ताल में नहाते और बरसात में भीगते जाने कब
वक्त आ गया सबकुछ छोड़कर आने का। वो चकरोट, खलिहान, नहर, पोखर, ताल-तलैया, मीलों तक
परती पड़े खेत, उतने ही कोठार-बखार भर देने को आतुर फसलों से लहलहाते खेत। वो फटेहाल
अमीरी, हमउम्रों का झुंड...। सब छूट गया सिर्फ एक नौकरी के लिए...। बच्चों की अच्छी
पढ़ाई के लिए, बीमार और बूढ़े मां-बाप की दवाई के लिए...। ईएमआई के लिए...। वरना क्या
नहीं है हमारे गांवों के पास। हम गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं देने के बजाय, गांवों
को शहर बनाते रहे। अब शहर गांव के गांव, खेत के खेत लीले जा रहे हैं...।
खैर, बात उसकी, जिस पर तेरा जिक्र आया, तेरी कहानी याद आई और मुझमें मेरा गांव उतर आया...। ऑफिस में दोपहर का सामूहिक भोज चल रहा था। यूं तो रूटीन है, लेकिन आज राजस्थानी जायकों के बीच था यूपी(पूर्वांचल) का स्वाद। उसने अपने हमसफर के बिना ही सुर्खियां बटोरी। राजस्थान डीबी डिजिटल की वीडियो टीम को हेड कर रहे वेदकांत शर्मा जी बिना लिट्टी के चोखा लाए थे। ब्रज प्रदेश के रहने वाले हैं। बकमाल! क्या हुनर पाया है शर्मा जी ने। उनके आगे अच्छे-अच्छे खानसामे पानी भरें। कुछ भी बनवा लीजिए, जनाब! अंगुलियां चाटते रह जाएंगे। पूर्वांचल का लिट्टी चोखा, अवध का भौरी भर्ता और राजस्थान का दाल-बाटी। इन्हीं जायकों के बखान के बीच चर्चा और गंवई होती गई। डीबी डिजिटल भोपाल के साथी जनार्दन पांडेय जी भी आजकल जयपुर आए हुए हैं। होनहार पत्रकार हैं। डिजिटल पत्रकारिता और युवा रीडर्स की पंसद, नपसंद बखूबी समझते हैं। सोनभद्र के हैं, सो भद्र तो हैं ही। पांडेय जी ने लकड़ी कंडे से जलते चूल्हे, नई नई ब्याई गाय-भैंस के पेउस की खिंझड़ी (खीस), नियाई की आग में दिनभर औटते दूध-दही, देसी घी की बातें छेड़ी तो मेरे भीतर दुबका बैठा गांव कुलबुला उठा और मैं खुद को फिर सड़क से उतरती उसी पगडंडी पर पाया। शाम का धुंधलका...। छोर पर बने घरों में टिमटिमाती रोशनी और तकरीबन हर रसोई से आ रही एक जैसी खुशबू। वो मिट्टी की महक, वो ताजे गोबर की गंध...।
गांव शुद्धता, सत्यतता की गारंटी है और शहर तुम मिलावट का गाेरखधंधा, भ्रष्टाचार हो...।
आज इतना ही...। गांव नहीं जा पा
रहे तो जसवंत सिंह की ये गजल सुनिए और अपने गांव को जी लीजिए...।
वक्त का ये पारिंदा रुका है कहां
मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर,
गांव मेरा मुझे याद आता रहा...।
बाकी जो है सो हइय है...। विकास
की फाइलें टेबल टेबल नाच रही हैं... आजकल तो हर तरफ एक ‘फाइल्स’ की भी बड़ी धूम है...। जमीन पर
कुछ हो न हो...।
बचपन की याद आ गई। हर लाइन अपने आप में उत्सुकता बढ़ाने वाला है।
जवाब देंहटाएंआभार पांडेयजी
हटाएंसत्य सब छूट गया सिर्फ एक नौकरी के लिए। बच्चों की अच्छी पढ़ाई के लिए, बीमार और बूढ़े मां-बाप की दवाई के लिए। ईएमआई के लिए। सर, बहुत खूब। बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअभिनंदन विकासजी
हटाएंसच है, कुछ पल के लिए तो बचपन में खो गए। आज के जीवन की यही सच्चाई है। इस रोजीरोटी के चक्कर में अपना जीवन तो कहीं गुम ही गया है।
जवाब देंहटाएंआभार, अभिनंदन दोस्त
हटाएंकटु सत्य, हर शब्द में गुजरा हुए कल की यादें। आपकी शानदार लेखनी।
जवाब देंहटाएंआभार आशीषजी
हटाएंबेहतरीन लेखन। .....इसे पढ़कर मुझे एक कविता याद आ गई।
जवाब देंहटाएंएक प्यारा-सा गाँव, जिसमें पीपल की छाँव...
छाँव में आशियाँ था, एक छोटा मकां था
छोड़ कर गाँव को, उस घनी छाँव को
शहर के हो गये हैं, भीड़ में खो गये हैं।
आभार उदयजी
हटाएंलाजवाब लेखनी...
जवाब देंहटाएंगांव की मिट्टी सौंधी खुशबू का इस भागदौड़ भरी जिंदगी में एहसास कराने के लिए शुक्रिया।
आभार, अभिनंदन दोस्त
हटाएंबचपन की अनगिनत बातें, यादें सब चलचित्र की तरह घूम गईं। मजा आ गया।
जवाब देंहटाएंआभार, शुक्रिया
हटाएंलगता है गांव जाना ही पड़ेगा
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